एक खोज जारी है यहां, मन के अंदर और बाहर भी परिनिर्वाण की तालाश में, जैसे किसी बुद्ध की तरह। क्या पता किसी वैश्या के हाथों खीर की कटोरी में मिल जाए वजूद एक दिन यूं मुददतों से भटकते-2 उस तथागत या कि बुद्ध की तरह।
Tuesday, November 30, 2010
कुहरों की सफ़ेद झीनी चादरों में लिपटकर यादों का मौसम आया है .....
जाने कौन सी गली से इश्क की सदायें लिए ये मौसम आया है.....
Saturday, October 16, 2010
Sunday, October 10, 2010
इस रात की कोई सुबह नहीं.
आज की शाम बहुत याद आयी तेरी याद।,
पिछली शाम , ढलती किरणों संग तेरी तिरती मुस्कान।
Monday, June 7, 2010
खाली खाली सा मन
पर मन उतना ही तनहा और उदास.. मेरी य इ उदासी कहाँ ले जाएगी मुझे... नहीं जनता... पिछले चंद दिनों से अपनी जिंदगी में मुस्त मशगूल सा था... न कोई गम न कोई फिक्र... सोचना ही छोड़ दिया था किसी और बारे में..
मेरा ये अल्हरपन.. ये फक्कड़ पण .. एक दिन मुझे यु ही सताएगा.. इसका मुझे एहसास था...
अभी कल की ही तो बात है.. अमृत (मेरा दोस्त भाई जैसा ) को छोड़ने स्टेशन तक गया तो मन भर आया .. सोचने लगा.. यार दोस्तों के कितने फ़ोन आ रहे थे.. चला जाता तो अच्छा ही होता.. जाने जिन्दगी कब ये हंसने मुस्कराने के चंद लम्हे भी चीन ले... सबने कहा अ जाओ न चन्दन.. क्या होता है.. ३ -४ दिनों में .. एकठे बैठ कर दो पल हंस बोल ही लेंगे.. इस शादी के बहाने.. एक अरसा गुज़र गया.. तुम्हारा चेहरा देखे.. और तुम्हारी बातें.. वैसे भी तुम बोलते कहाँ हो..Tuesday, April 27, 2010
नींद भरी रातों के जागते सपने.
Monday, April 26, 2010
..२० मिनट का सफ़र जो पूरा नहीं होता......
उठ कर देखो जीवन ज्योत उजागर है....राधा मोहन शरणम.... की मोबाइल रिंग टोने के साथ कुछ इस तरह होती है मेरी सुबह ...सुबह के सात बजे.. जी चाहता है और सोने को.. चाहकर भी लता के इस भजन को बंद नहीं कर पाता... सामने बालकनी के निचे बनी मुंडेर से कबूतर का एक जोड़ा गुनगुनाता दीखता है... मै चाहकर भी जगा नहीं रह पता.. माँ के हांथों का भीगा स्पर्श याद आता है.. और मै नींद की दुनिया में अगले आधे घंटे के लिए चला जाता हूँ... और चाहकर भी उसके बाद सो नहीं पता.. आदत जो है बचपन से... बचपन में जे एन वि के हॉस्टल में पीटी क्लास्सेस के लिए.. छुट्टियों में माँ के मंत्रौचारण से.. हमेशा सुबह सुबह जगता रहा हूँ.. घर पर होता तो माँ पूजा के बाद अपने शीतल हांथों से बालों में उंगलियाँ फ़िराती तो मै करवट बादल कर सोने का उपक्रम करता...
आज माँ का स्पर्श अतीत जैसा हो गया है.... मै यहाँ दिल्ली में .. माँ वहां पुर्नेया में.. कभी कभार घर भी जाना हुआ तो ये सुख तो मिल नहीं पाता.. माँ खोयी खोयी सी रहने लगी है.. आँखों के साथ यादाश्त भी थोड़ी कमजोर हो गयी है.. .. हाँ रविवार के रविवार सुबह सुबह फ़ोन करना नहीं भूलती..
और कभी फ़ोन न लगे तो और माओं की तरह परेशान भी हो जाती है .. जैसा इस सुबह रविवार को हुआ.. मै अल इंडिया रेडियो के न्यूज़ रीडर के लिए एक्साम दे रहा था और फ़ोन बंद था .. करीबन दो बजे तक...
और फ़ोन आउन करते ही जब माँ का फ़ोन बजा तो... तो लगा माँ कितनी परेशान रही होगी.. अब तक शर्मिंदा हूँ.. ऐसी गलती के लिए जो मैंने किया ही नहीं..
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सुबह के १०.३० बजे मै लक्ष्मीनगर मेट्रो स्टेशन पर होता हूँ... पाता नहीं मेट्रो से ये २० मिनट इतने भाड़ी क्यों पड़ते है.. मेट्रो भी ५-६ मिनट बाद ही आती है... पहले पहल तो मोबाइल से fm सुना करता था.. पर जी उचाट हो गया.. अब फिर समाचार पत्र के एडिटोरिअल पढने लगा ... फिर भीस्म सहनी की कहानियाँ... और आजकल... मोहन लाल भास्कर की.."मैं पकिस्तान में भारत का जासूस था..." बेहद रोचक होने के बाद भी मै यमुना बैंक के बाद किताब के बीच उंगलियाँ रखकर यमुना को देखने लगता हूँ... (याद है पहली बार दिल्ली आते हुए यमुना देखने की कितनी जिज्ञासा थी, पर इससे आती दुर्गन्ध ने मुझे बेहद निराश किया था..) ..यमुना.. मेट्रो के शीशे से पार यमुना को देखता रहता हूँ.. सोचता हूँ जितना हम इंसान बचे रह गए है .. यमुना भी उतनी ही नदी बनी रह गयी है..
न हमने खुद को इंसान बने रहने दिया .. और न ही उसे नदी... मोह होता है यमुना को देखकर.. कृष्ण के रास लीलाओं की.. बाल लीलाओं की बरबस याद आती है.. ..और पलक झपकते ही यमुना आँखों से तिरती हुयी ओझल हो जाती है.. फिर पेड़ों की झुरमुट से "इन्द्रप्रस्थ " आता है... पांडवों की नगरी पर कहीं से कोई ऐतिहासिक झलक नहीं और न ही इतिहास सोचने का मौका... अलबत्ता WHO का बड़ा सा ऑफिस नज़र आता है.. चमचमाता हुआ.. और इस पर गर्व करने से पहले ही उसके पीछे बड़ी सी गन्दी नाली और उसके किनारे बसे सैकड़ों झुग्गियां नज़र आती है... सिस्टम में होल यहीं पर दीखता है... जिसे राष्ट्रमंडल खेलों के पहले दिल्ली सर्कार बांस के बड़े बड़े झुरमुट लगाकर ... करोड़ों रुपये लगाकर ढँक देना चाहती है.. ताकि दिल्ली सुन्दर दिखे .
मन कड़वा हो जाता है .....
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"प्रगति मैदान"
प्रगति मैदान के इर्द-गिर्द लगे गुलमोहर के पदों पर लादे लाल -लाल गुलमोहर इस बेरंगी सी जिन्दगी में रंग भरने की भरसक कोशिश करते हैं... जैसे आसमां से दादी नानी की कहानियों वाली लाल परी धरती पर उतर आयी हो..
और अब सारे दिन की थकन के बाद उन कहानियों को सोचते हुए.. वक़्त इस मशीनी कंप्यूटर के आगे ठहर सा गया है... जी उन कहानियों से बहार आकर कुछ लिखने को कहाँ देना चाहता है...
Saturday, April 24, 2010
अपनी जासूसी भी करिए
मेरे को भी दो बार बुला कर पूछा.इतनी खुंदक आयी की पूछो मत. मन मर कर रह गया . हर बार यही कहा की सर इन बातों से मेरा कोई सरोकार नहीं.... और वैसे भी आपकी बुराई यहाँ कोई नहीं करता... जबकी सच इसके उलट था. ऑफिस में दबी जबान से मौका पाकर लोग थोडा बुरा भला बोल लेते थे.
मेरा मन इस ऑफिस से उब चूका था और खासकर इस बॉस से ... जो एक इंसान तो कतई नहीं था...
हालांकी उसने मुझे कभी भला बुरा नहीं कहा पर उसकी हरकतों की वजह से मुझे उसके शकल से भी नफरत हो गयी थी. म सोचता की कभी कभी इंसानों की तरह बर्ताव कर लेने से भला उसका क्या बिगड़ जायेगा?
खैर मेरा एक नए ऑफिस से बुलावा आ गया , जहाँ पिछले हफ्ते मैंने interview दिया था,
बहरहाल मैं खुश था.. पिछले साथियों से बिछड़ने का गम भी था... पर कौन सी चीज़ अब तक जिन्दगी में टिकी थी की इनके साथ के न टिकने का गम होता....
Saturday, April 17, 2010
रूह में पनाह है तेरा .
दूर आसमां में बादल भी नहीं जो....
जैसे क्रोंच पक्छी के जोड़े में से ,
एक हो गया हो शिकारी की क्रूरता का शिकार,
प्रेम व् प्रणय की पीड़ा से कराहता
निस्संग रह गया अकेला प्राणी ,
क्या कहेगा व्यथा अपनी या की देगा श्राप ,
और दूर बैठा ऋषि वियोग देखकर ,
मानो फिर उठा लेगा
कमल की पंखुड़ी और लिख देगा
प्रथम रचना पहला काव्य.
और फिर दूर हो जाएगी इन हवाओं की उदासी....
और मेरे आगोश में होगी....
तुम्हारे सीने की ठंडक ....
अहिस्ता आहिस्ता रूह में पनाह लेती....
Wednesday, April 14, 2010
तुम्हारी ही छाँव में....
तुम्हे शायद पता भी नहीं पर
तुम्हारे स्नेह के बितान तले,
एक शख्स यहाँ हैरान नज़र आया,
एक फूल खिलने को है तुम्हारी छांव में,
चहक कर मिलने को है जिन्दगी से .....
...... तुम्हारी ही छाँव में.
Monday, April 12, 2010
तुम्हारा साथ ...
Saturday, April 10, 2010
पुराने ख़त..और तुम्हारी याद.
पिछली रात ,पलटते हुए एक पुरानी किताब ,
एक ख़त निकल आया, पुराने किसी अज़ीज़ का...
शब्द दर शब्द बयां करता मेरा वजूद....
वो पुराना ख़त निकल आया....
स्याही सुखी थी... एकदम पर इंसानी गंध कायम थी
ख़त के हासिये में मैं था और ख़त में मेरा वजूद।
जाने किस गली से अँधेरे में ये चिराग निकल आया।
लापता से इस शहर में लाख ढूँढा पर ,
कही कोई आपना मुक्कमल ठिकाना नज़र नहीं आया...
ठुकराया था जिन राहों को कभी...
लाख दी आवाजें पर ...वो राह मुड़कर नहीं आया।
छु भी ना पाया जिसको कभी लफ्जों से ..
आज वही हर्फों से सीने में उतर आया.
खामोश दरिया .....
हर जगती सुबह के साथ एक उनींदी सी,
अंगराई ले ये दरिया निकलता है ॥
सूरज की सतरंगी किरणों के संग
जैसे जीत लेगा जहाँ सारा ...
पर जाते जाते उस वीरान किनारे तक
लिपट जाता है असंवेदना की चादरों से ।
और ओढ़ लेता है तांन के लिहाफ ,
m छुपा रहा हो अपना वजूद ।
उस किसी एक शक्श से जिसके लिए
हजारों वादे किये थे कभी ...
भीगी रातों से लेकर तपती दुपहरी में ,
समय की शिलाओ के पार ।
अनाम सी सुबह में याद करता हुआ उसे ॥
ढूंढता रहा इस अजनबी शहर में ।
जो एक शख्श कही सो रहा है ,
कई जागी उनींदी रातों में करवटें बदलने के बाद ।
चलो एक सुकून तो है ,
उस जिस्म की उजास में जो चेहरा दमक रहा है ...
रात भर याद आईये सोच कर ही महक रहा है ।
मेंरा क्या ......???? मैं तो एक खामोश दरियां हूँ ॥
बह जाऊँगा आगे ऐसे ही खामोश ....
देखना तुम की कहीं कल सुबह,
ये नमी तुम्हारे सिरहाने न हो ।
आगे दिन का ताप तो है ही पुरे दिन जलने के ,
रातों रातों से जो अधजगी raaton se ,
एक लहर चुरा ली होती ।
एक जिस्म जिसका पता नहीं ...
उसकी रूह को ठंढक मिल जाती ।
दरीयाँ तो दरिया है ...ख़ामोशी से बह जायेगा ...
तुम्हारी सुलझी जिंदगी में बेवजह ,
एक उलझी दास्ताँ बनकर रह जायेगा ।
draft
Wednesday, April 7, 2010
बेगाने
आज सुबह नींद खुली और अखबार हाथ में लिए देखना शुरू भी नहीं किया था की दरवाज़े पर दस्तक...
बड़ी झल्लाहट होती है मुझे, अगर कोई सुबह सुबह अपरिचित या अखबार वाला या आन्यकोई ऐसा आ जाये जिसे देखकर मुझे ख़ुशी या अपनेपन का एहसास न हो, आ जाये तो। बहरहाल वो और कोई नहीं... मेरे लैंड लोर्ड की माँ थी। बोली बेटा सुबह सुबह आने के लिए माफी चाहती हूँ।पर बेटा आज 8tarikh है , और इस बार का किराया मेरे ही हांथों में देना॥ और हाँ हमारी बहु से इस बारे में कुछ न कहना। म हिमाचल जाते हुए उसे खुद ही बता कर जाउंगी किराया मिल गया। बहरहाल आपनी छोटी सी सैलरी का बड़ा हिस्सा मैंने किराये के रूप में आंटी को दे दिए। और चाय के लिए पूछा ..... हालाँकि मेरा मनन सुबह सुबह चाय बनाने का बिलकुल भी न था.... पर आंटी ने भी मना कर दिए फिर मेरे मन में उनकी लाचारगी के लिए दया आ गयी मैंने जिद की ..... की अब तो आपको मेरे हांथों की चाय पीनी ही होगी । फिर वो बैठ गयी ... रैक में पड़ी अल्बम उठा ली और लगी पलटने ... म भी अभी आया बोलकर नीचे दूध की थैली लेने चला गया । आया तो किचन में जाकर चाय बनानी शुरू कर दी और किचन व् कमरे से जुडी खिरकी से आंटी को देखते हुए पूछा- तो आप हिमाचल कब जा रही है? परसों । उनका संक्ष्पित जवाव था।चाय में कुचले हुए आदरक डालकर मैंने पूछा? अब दुबारा कब आना होगा? बोली न आना हो तो ही बेहतर होगा। थोड़ी सी जिन्दगी बची है वही आपनी जमीन पर सांस छुते तो अच्छा होगा। अल्बम छोड़कर अब उन्होंने कंप्यूटर पर पड़े फोटो फरमे को उठा लिया। अमूमन उसे कोई छेड़ता है तो मुझे बड़ा गुस्सा आता है पर आज नहीं आया॥ उसपर पड़ी हलकी सी गर्द सतह को हाथ से छुते हुए कहा, खुशकिस्मत है तुम्हारे मम्मी पापा। मैंने चाय का प्याला उनके हाथों में देकर कहा॥ उनसे ज्यादा मैं खुशनसीब हूँ। फिर उनके हांथों से वो अल्बम लेकर देखने लगा जब मैं पिछली बार दिवाली पर घर गया था और अपने इस कमरे की औतोमटिक तकनीक से मैं माँ पापा और मेरे भाई ने एक साथ बैठकर ये तस्वीर खीचाई थी। वाबजूद इसके की मेरी बहू से कुछ न कहना , मैंने उनसे कुछ नहीं पूछा। बस उनकी लाचारगी समझ गया। चाय अछि बनी है बोलकर उठ कड़ी हुयी और एक परचा देते हुए बोला की अब से बेटा किराया इसी खाते में जमा कर देना। अब तो इन्ही का आसरा रह गया है । पिछले पुरे एक साल में हुमदोनो के खर्चे के लिए बेटे ने महज़ ६००० रूपये भेजे। जबकि किराये से ६००० का महिना आता है। जवानी के दिन में खून पसीने सींच कर यह घर दिल्ली में बनवाया था । अब अपने ही घर में बेगाने है। इतने से पैसों में क्या खाए और क्या बचाएं? वहां हिमाचल में कोई गुरुद्वारा भी नहीं दिल्ली की तरह .........की एक वक़्त का खाना ही वहां से मिल जाये। कहकर वो तेज़ीसे नीचे की तरफ चली गयी.और मेरे लिए एक शुन्य छोड़गयी। और मैं उनके ताठाकथित सोस ला इत बेटे बहु के बारे में सोचने लगा। जहाँ वाकई एक शुन्य था।
आज इस गली में थोड़ी उजास है...
खुश हूँ की कोई मेरे पास है ॥
हर घडी ग़म की धुप नहीं यहाँ ,
दूर कही तिरती बादलों की आस है।
गुमनामी का अँधेरा तो फैला है यहाँ
पर सिद्दत से अपने वजूद की तलाश है ॥
नामालूम ये वजूद तुम्हारे दो पल के सांगत में है,
या है ये किसी चाहरदीवारी के अन्दर बंद,
कराहता, कुलबुलाता॥ छटपटाता ....
किश्तों में जोड़ जोड़ कर मुस्कुराहटें अपनी ,
देखो न आज मैं कितना खुश हूँ।
आसमा का चाँद भी थोडा बड़ा है आज ,
हवाएं भी तो नहीं सरसराई पहले यु कभी
और देखो ये पीपल भी तो ज्यादा हरा है आज ।
क्या ये भी शरीक है मेरी खुशियों में,
या इनकी अपनी वज़हें है खुश होने की।
पर क्या है की कोई इंसान खुश नहीं आज ,
एक सांप तक खुशी से लहराकर चला गया,
पर कोई इंसान हुआ नहीं शरीक इस ख़ुशी में,
अब समझा अज्ञेय ने क्यों कहा की ,
सांप। ....
तुम सभ्य तो हुए नहीं ,
नगर में बसना भी तुम्हे नहीं आया ,
एक बात पूंछू?????
(उत्तर दोगे??)
तब कैसे सीखा डसना और विष कहाँ से पाया?
तुम्हारी याद ...
बहुत याद आई तुम्हारी ....
आज तपती दोपहर में जब घर लौटा ..
बिखरा कमरा , सल्वती बिस्तार और ..
तुम्हारी तस्वीर पर जम i एक पर अत .
देखा जब तुम्हारी दी घड़ी , कलम और किताबें
एक छोटा सा रुमाल , chandi की अठन्नी
कोने में पड़ा लंच बॉक्स , और घुझियों का खली डब्बा ।
करीने से सजी भगवान् की मूर्तियाँ और ...
सामने जले हुवे धुप के अवसेश ....
तकिये के खोल पर तुम्हारी नक्काशी ,
और मेरे गले का का ला धागा ...
देखा तो बड़ी याद आई तुम्हारी .
दिन भर की हताशा के बाद लौटा जो घर ,
रोटियों की सोंधी गंध की कौन कहे ,
एक ग्लास ठंडा पानी पूछने को जब कई ना था ,
तो तुम्हारी बड़ी याद आई माँ .
हाँ .. बड़ी शिद्दत से याद आई माँ
Tuesday, April 6, 2010
khamosh hoon mai...
Saturday, April 3, 2010
tumhari bahut yaad aayi.
talash jari hai....
talash jaari hai is ajnabi shahar me.... apne wazood ki.koi mukkamal shaksh, koi dharti aur kisi Aasmaan ki. 












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