Tuesday, November 30, 2010

कुहरों की सफ़ेद झीनी चादरों में लिपटकर यादों का मौसम आया है .....

कुहरों की सफ़ेद झीनी चादरों में लिपटकर यादों का मौसम आया है .....
जाने कौन सी गली से इश्क की सदायें लिए ये मौसम आया है.....

hmmmm.. just read

Sunday, October 10, 2010

neeeeeeeeeeeeeeeeeews

इस रात की कोई सुबह नहीं.

इस रात की कोई सुबह नहीं....... यारों।
 इस दोस्ती की राह आसन नहीं होती॥
पहले जान पहचान, फिर इंतजार।
 थोड़ी सी दोस्ती और ढेर सारा प्यार ।
 आज की शाम बहुत याद आयी तेरी याद।,
 पिछली शाम , ढलती किरणों संग तेरी तिरती मुस्कान।
 अब किस गली तुझको ढूँढू मेरी जान,
तेरी दोस्ती ही तो है अब इस रूह की पहचान
ये शाम कुछ अलग है,
हमारी पिछली शाम से अलग॥
बिलकुल अलग..... एक पल में जिन्दगी को बदलते हुए देख रहा हु...
 कल तक पल भर को जिसका ख्याल आता था,
अब वो पल भर को भी जाता दूर दिल से नहीं॥
 मैं क्या कहू, क्या अब तो इन आँखों में har शय तस्वीर है तेरी॥
 इस रात की कोई सुबह नहीं.......
 तेरे दूर चले जाने के बाद........ इस दहकती रात और इस निशा... अंत के साथ।
 जल रहा हूँ मैं अपनी हीlagai आग में ,
 तेरी दोस्ती का दरियां दूर है और मैं ,
प्यासा मैं प्यासा खड़ा हूँ सागर के पास.

Monday, June 7, 2010

खाली खाली सा मन

मौसम आज बेहद ही सुहाना है.. जैसे दिल्ली की आबोहवा पर किसी सोनपरी ने जादुई छड़ी घुमा दी हो..
पर मन उतना ही तनहा और उदास.. मेरी य इ उदासी कहाँ ले जाएगी मुझे... नहीं जनता... पिछले  चंद  दिनों से अपनी जिंदगी में मुस्त मशगूल सा था... न कोई गम न कोई फिक्र... सोचना ही छोड़ दिया था किसी और बारे में..
 मेरा ये अल्हरपन.. ये फक्कड़ पण .. एक दिन मुझे यु ही सताएगा.. इसका मुझे एहसास था...
अभी कल की ही तो बात है.. अमृत (मेरा दोस्त भाई जैसा ) को छोड़ने स्टेशन तक गया तो मन भर आया .. सोचने लगा.. यार दोस्तों के कितने फ़ोन आ रहे थे.. चला जाता तो अच्छा ही होता.. जाने जिन्दगी  कब ये हंसने मुस्कराने के चंद लम्हे भी चीन ले... सबने कहा अ  जाओ  न चन्दन..  क्या होता है.. ३ -४ दिनों में .. एकठे बैठ कर दो पल हंस बोल ही लेंगे.. इस शादी के बहाने..  एक अरसा गुज़र  गया.. तुम्हारा चेहरा देखे.. और तुम्हारी बातें.. वैसे भी तुम बोलते कहाँ हो..
जाने कौन सी दुनिया में रहते हो.. क्या चाहते हो.. एक पहेली थे तब भी.. एक पहेली हो अब भी..
पर ये पहेलिपन भी अच्छा लगता है तुम्हारा.. हर बारत मिलकर लगता है जैसे किसी शक्श से पहली बार मिल रहा हूँ...  
 मै यहाँ घूम  रहा हूँ सेंट्रल पार्क.. पालिका के ऊपर से होता हुआ .. जंतर मंतर.. ymca  की बिल्डिंग दिखती है तो दिल्ली का अतीत और उस अतीत के कहीं गहरे पार.. मेरे दोस्तों की बातें.. यादें..
सब खुद ही मेरे दोस्त बने.. जाने इस पहेली को सुलझाने की कवायद में शायद .... आज उस शादी के बहाने सभी मुझे मिस कर रहें हियो सायद.. और मै भी कहीं ज्यादा...
उफ़ ये सैलरी  कम्बक्त  थोड़ी पहले मिल जाती तो चला भी जाता शायद...
 घूम रहा हूँ हवाओं के सुखद झोके के संग..
पर दोस्तों तुम्हारी यादें ज्यादा सुखद है...
मैंने जिन्दगी से मौका छीना तो फिर से तुम्हारे साथ हो सकूँगा..
ये ठंढी हवाएं दिल में कहीं गहरे चुभ  रही है.. 
और  मन धुआं धुंआ सा है....

Tuesday, April 27, 2010

नींद भरी रातों के जागते सपने.

पिछली रात नींद बहुत अच्छी आयीकई जगती उनींदी रातों के बाद.... एक सुकून सा हलक में उतर आया जाने कहाँ से... फिर ये सुकून पलकों से होकर बच्चों की सी गहरी नींद और फिर सपनो में उतर आयासपने भी आयेजिन्होंने डराया नहीं , परेशान नहीं किया , कोई तनाव या चिंता नहींलगा जिन्दगी ऐसी हो कभी कभी ही सही तो कितना अच्छा हो..दो पल इंसान जी ले जिन्दगी को जिन्दगी की तरह... एक आस तो है जिन्दगी सेचाहे कितनी भी धुप हो रात के दामन में दो ठंढी बूँदें ओस की तो होगी ही.... जीन्दगी गंदे फूल की तरह ही तो है ....

थोडा रंग ,थोड़ी खुशबू....और फेंक कर मारो तो चोट भी लगती है....

मुझे लगता है जिन्दगी किसी कल्प वृक्ष की तरह ही तो है...जैसी कामना करोगे वैसा ही प्रतिफल मिलेगा...

हैरत होती है मुझे जब कोई इंसान मिल जाता है... हाँ ... आज के इस अवसरवादिता के युग में कोई इंसान अच्छा इंसान मिल जाये तो हैरत की ही तो बात है ... और ज्यादा हैरत तब होती है जब उनको खुश देखता हूँवो इंसान हँसते गाते ... मुस्कुराते और जीतें है... मुझे हर कदम ... हर अक्श अछे लोग मिले .... मैंने अपना थोडा जीवन उन्ही की सोहबत में जिया... और उम्मीद है की आगे भी जीवन यु ही मुस्कुराएगा .... और इसकी छांव में मैं भी.... आज मेरे एक अजीज ने मुझे लिखा ...... कितने चित्र ,कितनी तिथियाँ बदल गयी ,पर कुछ भी बदला बदला सा लगता नहींसबकुछ वैसा का वैसा दीखता है, मन की अन्तरंग दुनिया में शायद दिन महीने नहीं होते , काल वर्ष बदलता हैजो जैसा था वो वैसा ही संजोया सा रहता है, मन की अनंत स्मिर्तियों में

सच ही कहा तुमने अनुजमैं भी तो यहाँ यही महसूस करता हूँमीलों दूर हूँ यहाँ , पर फुर्सत के लम्हे अनंत स्मृतियों में ले जाते है.... उन यादों में आज भी कितनी ठंडक है...उन खामोश लम्हों में कितनी ही बातें है....

कई बार इंसान कुछ बोलकर भी कितना कुछ बोल जाता है और कई बार सबकुछ बोलकर भी अपनी बात नहीं कह पता है.....ये मानवीय जटिलता है... शब्द दर शब्द इंसान... परत दर परत खुलता है.... पर ख़ामोशी... बिना कहे ही कैसे सब कह जाती है.... बहरहाल खुश हूँ की कुछ लोग है अपनी जिन्दगी में ... बेगाने शहर में अपनों की तरह... जिनके साथ पल दो पल जी सकता हूँ जिन्दगीजिनके बारे में सोचना अच्छा लगता है... जिनके लिए कुछ करना अच्छा लगता है..... जाने कब तक ये साथ है... पर जो और जितना ही है... अच्छा है...

दो पल तो अपने सुनहरे यादों के संदूक में संजो ही लूँगा...

मुझे अछे लोगों की बड़ी फिक्र होती है... कितने कम बचे है वो... दुर्लभ... मृगा की कस्तुरी की तरहनाग की मणि की तरह... कदम्ब के फूल की तरह... और अवसरवादी दुनिया मुह फाड़े खड़ी है...इनको निगल जाने के लिए.... इनके वजूद को मिटा डालने के लिए...

मुझे वाकई इनकी फिक्र है.... ये एक बेहतर जिन्दगी के सुपात्र है... लेकिन अफ़सोस इनके हिस्से वो कम ही आती है.... काशकाशमैं कुछ कर पता .... मुझे कुछ करना होगा...

मुझे इस धरती को बचाए रखने के लिए कुछ करना चाहिए....

इस धरती का वजूद इन्ही अछे लोगों से तो कायम है......

उफ्फ्फ ....... कितने अच्छे है ये लोग

मिलकर जीन्दगी की हर साध पुरी हो जाती है मानो....

एक प्राण करना होगा हमें चाहे हम अछे लोगों का भला कर पायें....

पर कभी हमारे हांथों उनका बुरा नहीं होना चाहिए.....

Monday, April 26, 2010

..२० मिनट का सफ़र जो पूरा नहीं होता......

खिडकियों से आती ताज़ी हवा... कबूतर की गुटुर गूं ... इश्वर  सत्य  है.. सत्य ही शिव है ... जागो.....
उठ कर देखो जीवन ज्योत उजागर है....राधा मोहन शरणम.... की मोबाइल रिंग टोने के साथ कुछ इस तरह होती है मेरी सुबह ...सुबह के सात बजे..  जी चाहता है और सोने को.. चाहकर भी लता के इस भजन को बंद नहीं कर पाता...  सामने बालकनी के निचे बनी  मुंडेर से कबूतर का एक जोड़ा गुनगुनाता दीखता है... मै चाहकर भी जगा नहीं रह पता.. माँ के हांथों का भीगा स्पर्श याद आता है.. और मै नींद की दुनिया में अगले आधे घंटे के लिए चला जाता हूँ... और चाहकर भी उसके बाद सो नहीं पता.. आदत जो है बचपन से... बचपन में जे एन वि  के हॉस्टल में पीटी क्लास्सेस के लिए.. छुट्टियों  में माँ के मंत्रौचारण से.. हमेशा सुबह सुबह जगता रहा हूँ.. घर पर होता तो माँ पूजा के बाद अपने शीतल हांथों से बालों में उंगलियाँ फ़िराती तो मै करवट बादल कर सोने का उपक्रम करता... 
आज माँ का स्पर्श अतीत जैसा हो गया है.... मै यहाँ दिल्ली में  .. माँ वहां पुर्नेया में.. कभी कभार घर भी जाना हुआ तो ये सुख तो मिल नहीं पाता..  माँ खोयी खोयी सी रहने लगी है.. आँखों के साथ यादाश्त भी थोड़ी कमजोर हो गयी है.. .. हाँ रविवार के रविवार सुबह सुबह फ़ोन करना नहीं भूलती..
और कभी फ़ोन न लगे तो और माओं की तरह परेशान भी हो जाती है .. जैसा इस सुबह रविवार को हुआ.. मै अल इंडिया रेडियो के न्यूज़ रीडर के लिए एक्साम दे रहा  था और फ़ोन बंद था .. करीबन दो बजे तक...
 और फ़ोन आउन करते ही जब माँ का फ़ोन बजा तो... तो लगा  माँ कितनी परेशान रही होगी.. अब तक शर्मिंदा हूँ.. ऐसी गलती के लिए जो मैंने किया ही नहीं..
........................                            ...............................
सुबह के १०.३० बजे मै लक्ष्मीनगर मेट्रो स्टेशन पर होता हूँ...  पाता नहीं मेट्रो से ये २० मिनट इतने भाड़ी क्यों पड़ते है.. मेट्रो भी ५-६ मिनट बाद ही आती है... पहले पहल तो मोबाइल से fm सुना करता था.. पर जी उचाट हो गया.. अब फिर समाचार पत्र के एडिटोरिअल पढने लगा ... फिर भीस्म सहनी की कहानियाँ... और आजकल... मोहन लाल भास्कर की.."मैं पकिस्तान में भारत का जासूस था..." बेहद रोचक होने के बाद भी  मै यमुना बैंक के बाद किताब के बीच उंगलियाँ रखकर यमुना को देखने लगता हूँ... (याद है पहली बार दिल्ली आते हुए यमुना देखने की कितनी जिज्ञासा थी, पर इससे आती दुर्गन्ध ने मुझे बेहद निराश किया था..) ..यमुना.. मेट्रो के शीशे से पार यमुना को देखता रहता हूँ.. सोचता हूँ जितना हम इंसान बचे रह गए है .. यमुना भी उतनी ही नदी बनी रह गयी है..
 न हमने खुद को इंसान बने रहने दिया  .. और न ही उसे नदी...  मोह होता है यमुना को देखकर.. कृष्ण के रास लीलाओं की..  बाल लीलाओं  की बरबस याद आती है.. ..और पलक झपकते ही यमुना आँखों से तिरती हुयी ओझल हो जाती है.. फिर पेड़ों की झुरमुट से "इन्द्रप्रस्थ " आता है...  पांडवों की नगरी  पर कहीं से कोई ऐतिहासिक झलक नहीं और न ही इतिहास सोचने का मौका... अलबत्ता WHO का बड़ा सा ऑफिस नज़र आता है.. चमचमाता हुआ.. और इस पर गर्व करने से पहले ही उसके पीछे बड़ी सी गन्दी नाली और उसके किनारे बसे सैकड़ों झुग्गियां नज़र आती है... सिस्टम में होल यहीं पर दीखता है... जिसे राष्ट्रमंडल  खेलों के पहले दिल्ली सर्कार बांस के बड़े बड़े झुरमुट लगाकर ... करोड़ों रुपये लगाकर ढँक देना चाहती है.. ताकि दिल्ली सुन्दर दिखे .
मन कड़वा हो जाता है ..... 
............................ .......................
"प्रगति मैदान"
प्रगति मैदान के इर्द-गिर्द लगे गुलमोहर के पदों पर लादे लाल -लाल गुलमोहर इस बेरंगी सी  जिन्दगी में रंग भरने की भरसक कोशिश करते हैं... जैसे आसमां से दादी नानी की कहानियों वाली लाल परी धरती पर उतर आयी हो.. 
और अब सारे दिन की थकन के बाद उन कहानियों को सोचते हुए.. वक़्त इस मशीनी कंप्यूटर के  आगे ठहर सा गया है... जी उन कहानियों से बहार आकर कुछ लिखने को कहाँ देना चाहता है...
ये अनंत सफ़र तो यु ही जरी रहेगा...
पाता नहीं उन अपनों को याद करने का वक़्त मिले न मिले.......
हाँ ... पर वो अ अस्थिर ..गतिशील २० मिनट नहीं कट ते ....


Saturday, April 24, 2010

अपनी जासूसी भी करिए

मेरे ऑफिस में हमारे एक  बॉस थे.अक्सर मौका पाकर वो एम्प्लोयी को काबिन में बुलाते और पूछते मेरे ऑफिस से जाने के बाद कौन क्या करता है? कौन क्या कहता है? मेरी बुराई कौन करता है? वगैरह ... वगैरह.
मेरे को भी दो बार बुला कर पूछा.इतनी खुंदक आयी की पूछो मत. मन मर कर रह गया . हर बार यही कहा की सर इन बातों से मेरा कोई सरोकार नहीं.... और वैसे भी आपकी बुराई  यहाँ कोई नहीं करता... जबकी सच इसके उलट था. ऑफिस में दबी जबान से मौका पाकर लोग थोडा बुरा भला बोल लेते थे.
मेरा मन इस ऑफिस से उब चूका था और खासकर इस बॉस से ... जो एक इंसान तो कतई नहीं था...
हालांकी उसने मुझे कभी भला बुरा नहीं कहा पर उसकी हरकतों की वजह से मुझे उसके शकल से भी नफरत हो गयी थी. म सोचता की कभी कभी इंसानों की तरह बर्ताव कर लेने से भला उसका क्या बिगड़ जायेगा?
खैर मेरा एक नए ऑफिस से बुलावा आ गया , जहाँ पिछले हफ्ते मैंने interview दिया था,
बहरहाल मैं खुश था.. पिछले साथियों से बिछड़ने का गम भी था... पर कौन सी चीज़ अब तक जिन्दगी में टिकी थी की इनके साथ के न टिकने का गम होता....
खुसी ज्यादा थी की इस ऑफिस को छोड़ रहा हूँ.
आगले दिन ऑफिस आते ही बॉस सबसे उलझते दिखे....
 लोग भी चुपचाप अपना काम करते दिखे...
मैंने कहा - सर आप हमेशा पूछते थे की कौन आपकी बुराई करता है?
और आपने तकरीबन सब से बरी बरी से पूछ भी लिया .. पर आपको तसल्ली नहीं हुई.
 होती भी कैसे आखिर . सर.
मैं  बताऊ? सर यहाँ कौन  है ,जो आपकी बुराई नहीं करता है.
सबके मन का बोझ यहाँ आपकी बुराई करके ही उतरता है .
लोगों की जासूसी करने की बजे अपनी जासूसी भी कर कर देखिये.
जनाब केबिन में चले गए... मुझे बुलाया और कहा ...
अपना रेसिग्न लैटर दे दो.
मुझे तो देना ही था...
ऑफिस वालों की आँखों में दिखी चमक से मेरे मनन का बोझ हल्का हो गया.
यार दोस्त बताते है बॉस सुधर गया है.


Saturday, April 17, 2010

रूह में पनाह है तेरा .


आज हवा थोड़ी उदास सी बह रही है,
मौसम भी कितना बदरंग और गरम है.
दूर आसमां में बादल भी नहीं जो....
ये जिस्म कोई ठंडक महसूस करे .
हूक उठी दूर कही किसी दिल में,
जैसे क्रोंच पक्छी के जोड़े में से ,
एक हो गया हो शिकारी की क्रूरता का शिकार,
प्रेम व् प्रणय की पीड़ा से कराहता
निस्संग रह गया अकेला प्राणी ,
क्या कहेगा व्यथा अपनी या की देगा श्राप ,
और दूर  बैठा ऋषि वियोग देखकर ,
मानो  फिर उठा लेगा
कमल की पंखुड़ी और लिख देगा
अपने नाखून से अपने अन्दर के विरह को,
 और अवतरित हो जाएगी सृष्टीकी,
  प्रथम रचना पहला  काव्य.
और फिर दूर हो जाएगी इन हवाओं की उदासी....
और मेरे आगोश में होगी....
तुम्हारे सीने की ठंडक ....
अहिस्ता आहिस्ता रूह में पनाह लेती....

Wednesday, April 14, 2010

तुम्हारी ही छाँव में....

अरसे बाद मुस्कुराया तुम्हारी छांव में,
जिन्दगी के बेहद करीब आया ,
कुछ पल साथ रहा जो  तुम्हारे तो
अतीत से मेरा बचपन लौट आया,
वजह मिली मेरे वजूद को तलाशने की  ,
जब कंधे पर तुम्हारा हाथ  नज़र  आया. 
एक मौन जो हावी था ,
परत दर परत इस आवाज़ पर,
एक स्मित बन अधरों पर उतर आया,
तुम्हारी ही छांव में.

तुम्हे शायद  पता भी नहीं पर 
तुम्हारे स्नेह के बितान तले,
एक शख्स यहाँ हैरान नज़र आया, 
एक फूल खिलने को है तुम्हारी छांव  में,
 चहक कर मिलने को है जिन्दगी से  .....
...... तुम्हारी ही छाँव में.

मेरी खबर

Monday, April 12, 2010

तुम्हारा साथ ...

डर लगता है एहसासों की उस नमी से...
उम्मीदों के रंगीन पर अधूरे से आसमा ...
और बिखरे ख्वाबों की रेतीली जमीन से।
क्या महसूस किया तुमने.... की
पल दो पल के साथ में कैसे चाँद निकल आया
और अब स्याह अमावस की रात घिर आई ।
पर इस रात में रजनीगंधा की महक है ,
दूर आ थे गए हम सपनों की उस जमीं से ,
ख्यालों की दुनिया और स्पर्श की उस नमी से ,
और आज ......
आज फिर डर सा लगा जब ,
तुम्हारे हांथों में जब नमी देखी ,
आँखों में उम्मीदों की नयी सी जमीं देखी .

Saturday, April 10, 2010

पुराने ख़त..और तुम्हारी याद.

पिछली रात ,पलटते हुए एक पुरानी किताब ,

एक ख़त निकल आया, पुराने किसी अज़ीज़ का...

शब्द दर शब्द बयां करता मेरा वजूद....

वो पुराना ख़त निकल आया....

स्याही सुखी थी... एकदम पर इंसानी गंध कायम थी

ख़त के हासिये में मैं था और ख़त में मेरा वजूद।

जाने किस गली से अँधेरे में ये चिराग निकल आया।

लापता से इस शहर में लाख ढूँढा पर ,

कही कोई आपना मुक्कमल ठिकाना नज़र नहीं आया...

ठुकराया था जिन राहों को कभी...

लाख दी आवाजें पर ...वो राह मुड़कर नहीं आया।

छु भी ना पाया जिसको कभी लफ्जों से ..

आज वही हर्फों से सीने में उतर आया.

खामोश दरिया .....

हर जगती सुबह के साथ एक उनींदी सी,

अंगराई ले ये दरिया निकलता है ॥

सूरज की सतरंगी किरणों के संग

जैसे जीत लेगा जहाँ सारा ...

पर जाते जाते उस वीरान किनारे तक

लिपट जाता है असंवेदना की चादरों से ।

और ओढ़ लेता है तांन के लिहाफ ,

m छुपा रहा हो अपना वजूद ।

उस किसी एक शक्श से जिसके लिए

हजारों वादे किये थे कभी ...

भीगी रातों से लेकर तपती दुपहरी में ,

समय की शिलाओ के पार ।

अनाम सी सुबह में याद करता हुआ उसे ॥

ढूंढता रहा इस अजनबी शहर में ।

जो एक शख्श कही सो रहा है ,

कई जागी उनींदी रातों में करवटें बदलने के बाद ।

चलो एक सुकून तो है ,

उस जिस्म की उजास में जो चेहरा दमक रहा है ...

रात भर याद आईये सोच कर ही महक रहा है ।

मेंरा क्या ......???? मैं तो एक खामोश दरियां हूँ ॥

बह जाऊँगा आगे ऐसे ही खामोश ....

देखना तुम की कहीं कल सुबह,

ये नमी तुम्हारे सिरहाने न हो ।

आगे दिन का ताप तो है ही पुरे दिन जलने के ,

रातों रातों से जो अधजगी raaton se ,

एक लहर चुरा ली होती ।

एक जिस्म जिसका पता नहीं ...

उसकी रूह को ठंढक मिल जाती ।

दरीयाँ तो दरिया है ...ख़ामोशी से बह जायेगा ...

तुम्हारी सुलझी जिंदगी में बेवजह ,

एक उलझी दास्ताँ बनकर रह जायेगा ।

draft

Wednesday, April 7, 2010

बेगाने

आज सुबह नींद खुली और अखबार हाथ में लिए देखना शुरू भी नहीं किया था की दरवाज़े पर दस्तक...

बड़ी झल्लाहट होती है मुझे, अगर कोई सुबह सुबह अपरिचित या अखबार वाला या आन्यकोई ऐसा आ जाये जिसे देखकर मुझे ख़ुशी या अपनेपन का एहसास न हो, आ जाये तो। बहरहाल वो और कोई नहीं... मेरे लैंड लोर्ड की माँ थी। बोली बेटा सुबह सुबह आने के लिए माफी चाहती हूँ।पर बेटा आज 8tarikh है , और इस बार का किराया मेरे ही हांथों में देना॥ और हाँ हमारी बहु से इस बारे में कुछ न कहना। म हिमाचल जाते हुए उसे खुद ही बता कर जाउंगी किराया मिल गया। बहरहाल आपनी छोटी सी सैलरी का बड़ा हिस्सा मैंने किराये के रूप में आंटी को दे दिए। और चाय के लिए पूछा ..... हालाँकि मेरा मनन सुबह सुबह चाय बनाने का बिलकुल भी न था.... पर आंटी ने भी मना कर दिए फिर मेरे मन में उनकी लाचारगी के लिए दया आ गयी मैंने जिद की ..... की अब तो आपको मेरे हांथों की चाय पीनी ही होगी । फिर वो बैठ गयी ... रैक में पड़ी अल्बम उठा ली और लगी पलटने ... म भी अभी आया बोलकर नीचे दूध की थैली लेने चला गया । आया तो किचन में जाकर चाय बनानी शुरू कर दी और किचन व् कमरे से जुडी खिरकी से आंटी को देखते हुए पूछा- तो आप हिमाचल कब जा रही है? परसों । उनका संक्ष्पित जवाव था।चाय में कुचले हुए आदरक डालकर मैंने पूछा? अब दुबारा कब आना होगा? बोली न आना हो तो ही बेहतर होगा। थोड़ी सी जिन्दगी बची है वही आपनी जमीन पर सांस छुते तो अच्छा होगा। अल्बम छोड़कर अब उन्होंने कंप्यूटर पर पड़े फोटो फरमे को उठा लिया। अमूमन उसे कोई छेड़ता है तो मुझे बड़ा गुस्सा आता है पर आज नहीं आया॥ उसपर पड़ी हलकी सी गर्द सतह को हाथ से छुते हुए कहा, खुशकिस्मत है तुम्हारे मम्मी पापा। मैंने चाय का प्याला उनके हाथों में देकर कहा॥ उनसे ज्यादा मैं खुशनसीब हूँ। फिर उनके हांथों से वो अल्बम लेकर देखने लगा जब मैं पिछली बार दिवाली पर घर गया था और अपने इस कमरे की औतोमटिक तकनीक से मैं माँ पापा और मेरे भाई ने एक साथ बैठकर ये तस्वीर खीचाई थी। वाबजूद इसके की मेरी बहू से कुछ न कहना , मैंने उनसे कुछ नहीं पूछा। बस उनकी लाचारगी समझ गया। चाय अछि बनी है बोलकर उठ कड़ी हुयी और एक परचा देते हुए बोला की अब से बेटा किराया इसी खाते में जमा कर देना। अब तो इन्ही का आसरा रह गया है । पिछले पुरे एक साल में हुमदोनो के खर्चे के लिए बेटे ने महज़ ६००० रूपये भेजे। जबकि किराये से ६००० का महिना आता है। जवानी के दिन में खून पसीने सींच कर यह घर दिल्ली में बनवाया था । अब अपने ही घर में बेगाने है। इतने से पैसों में क्या खाए और क्या बचाएं? वहां हिमाचल में कोई गुरुद्वारा भी नहीं दिल्ली की तरह .........की एक वक़्त का खाना ही वहां से मिल जाये। कहकर वो तेज़ीसे नीचे की तरफ चली गयी.और मेरे लिए एक शुन्य छोड़गयी। और मैं उनके ताठाकथित सोस ला इत बेटे बहु के बारे में सोचने लगा। जहाँ वाकई एक शुन्य था।

आज इस गली में थोड़ी उजास है...

खुश हूँ की कोई मेरे पास है ॥

हर घडी ग़म की धुप नहीं यहाँ ,

दूर कही तिरती बादलों की आस है।

गुमनामी का अँधेरा तो फैला है यहाँ

पर सिद्दत से अपने वजूद की तलाश है ॥

नामालूम ये वजूद तुम्हारे दो पल के सांगत में है,

या है ये किसी चाहरदीवारी के अन्दर बंद,

कराहता, कुलबुलाता॥ छटपटाता ....

किश्तों में जोड़ जोड़ कर मुस्कुराहटें अपनी ,

देखो न आज मैं कितना खुश हूँ।

आसमा का चाँद भी थोडा बड़ा है आज ,

हवाएं भी तो नहीं सरसराई पहले यु कभी

और देखो ये पीपल भी तो ज्यादा हरा है आज ।

क्या ये भी शरीक है मेरी खुशियों में,

या इनकी अपनी वज़हें है खुश होने की।

पर क्या है की कोई इंसान खुश नहीं आज ,

एक सांप तक खुशी से लहराकर चला गया,

पर कोई इंसान हुआ नहीं शरीक इस ख़ुशी में,

अब समझा अज्ञेय ने क्यों कहा की ,

सांप। ....

तुम सभ्य तो हुए नहीं ,

नगर में बसना भी तुम्हे नहीं आया ,

एक बात पूंछू?????

(उत्तर दोगे??)

तब कैसे सीखा डसना और विष कहाँ से पाया?

तुम्हारी याद ...

बहुत याद आई तुम्हारी .... आज तपती दोपहर में जब घर लौटा .. बिखरा कमरा , सल्वती बिस्तार और .. तुम्हारी तस्वीर पर जम i एक पर अत . देखा जब तुम्हारी दी घड़ी , कलम और किताबें एक छोटा सा रुमाल , chandi की अठन्नी कोने में पड़ा लंच बॉक्स , और घुझियों का खली डब्बा । करीने से सजी भगवान् की मूर्तियाँ और ... सामने जले हुवे धुप के अवसेश .... तकिये के खोल पर तुम्हारी नक्काशी , और मेरे गले का का ला धागा ... देखा तो बड़ी याद आई तुम्हारी . दिन भर की हताशा के बाद लौटा जो घर , रोटियों की सोंधी गंध की कौन कहे , एक ग्लास ठंडा पानी पूछने को जब कई ना था , तो तुम्हारी बड़ी याद आई माँ . हाँ .. बड़ी शिद्दत से याद आई माँ

Tuesday, April 6, 2010

khamosh hoon mai...

खामोश हूँ मैं आजकल
इसलिए नहीं की शब्द नहीं है मेरे पास
इसलिए की मैं चुप रहना चाहता हूँ।
महसूस करना चाहता हूँ उस आवाज़ को ,
जो शायद मेरी ख़ामोशी में सुने जाये।
एक आवाज़ तो हो तुम किसी की वजूद में ,
जैसे मंदिर की घंटी या शंख की अनुगूँज
या किसी कलि के खिलने की सरसराहट
मुझे पता है की बोलना चाहिए मुझे,
क्योकि न जाने किस घडी हो जाऊ बेवावाज़ ,
और एक निरंतर ख़ामोशी चा जाये मेरे वजूद पर।
अपनी ख़ामोशी पर मैंने तुम्हारी मुस्कराहट देखि ।
एक जीत की ख़ुशी और स्वयं का अभिमान।
हाशिये के इस पार मैं हूँ यहाँ पर,
और दूर क्षितिज पर तिरती तुम्हारी मुस्कान,
शायद इसलिए मैं आज खामोश हूँ,
दूर तुम्हारी नज़रों औरun chandi की दीवारों के पार,
आज मैं बेहद खामोश हूँ.

Saturday, April 3, 2010

tumhari bahut yaad aayi.

bahut yaad aayi tumhari....
aaj tapti dopahar me jab ghar lauta..
bikhra kamra, salwati bistaar aur..
tumhari tasweer par jami ek parat.
dekha jab tumhari di ghadi, kalam aur kitaaben
ek chota sa rumaal, chandi ki athanni
kone me pada lunch box, aur ghujhiyon ka khali dabba.
karine se sazi bhagwaan ki murtiyaan aur...
samne jale huwe dhoop ke awsesh....
takiye ke khol par tumhari nakkashi,
aur mere gale ka kala dhaga...
dekha to badi yaad aayi tumhari.
din bhar ki hatasha ke baad lauta jo ghar,
rotiyon ki sondhi gandh ki kaun kahe,
ek glass thanda pani poochhne ko jab kai naa tha,
to tumhari badi yaad aayi Maa.
haan.. Badi shiddat se yaad aayi maa.

talash jari hai....

talash jaari hai is ajnabi shahar me.... apne wazood ki.koi mukkamal shaksh, koi dharti aur kisi Aasmaan ki.
har raat aankhon me ek sapna lekar sota hoon aur..
jaag jata hoon suraj ki pahli kiran ki naram roshni ke saath,
ki aaj fir dhoondh sakun apna wazood,jise maine kho diya.
lagta hai apne wazood ki talash me mai bhi ...
mai bhi kahi kho jaunga.. is bhid ka hissa ban kahi gum jaunga.
kya tumne dekha hai kahi mera wazood....
kahi ye tumhare sirhane to nahi, tumhari palkon me.
ya ki tumhari muskurahton me ya ki aansuon me.
tumhari yaadion... me ya fir tumhare bistar ki silwaton me.
mai tanha hoon magar yakin hai tanha nahi rahunga..
dhoondh loonga wazood aur jinda rahunga,
har aksh aaine me na ho tasweer meri par..
kya pata ki teri nigahon me jinda rahunga.

khamosh dariyaa

khamosh dariyaa har jagti subah ke saath ek uneendi si angarai le ye dariyaa nikalta hai..suraj ki satrangi kirano ke sang jaise jeet lega jahan saara...par jaate jaate us viraan kinare tak,lipat jata hai asamvedna ki chadron se.aur odh leta hai tanhai ke lihaaf.. mano chupa raha ho apna wajood.us kisi ek shaksh se jiske liye hazzaron waade kiye the khabhi...bhigi raaton se lekar tapati dupahri me, samay ki shilao ke paar.ek anaam si subah me yaad karta hua use.. dhoondhta raha is ajnabi sahar me.jo ek shaksh kahi so raha hai kai jaagi uneendi raaton me karwaten badalne ke baad.chalo ek sukun to hai us jism ki ujas me jo chehra damak raha hai...raat bhar yaad aayi.. ye soch kar hi mahak raha hai...mera kya ......????mai to ek khamosh dariyaan hoon.. bah jaaunga aage aise hi khamosh..dekhna tum ki kahin kal subah.. ye nami tumhare sirhaane na ho.aage din ka taap to hai hi pure din jalane ke liye,kya hota jo adhjagi aankhon se hi..ek lahar chura li hoti.ek jism jiska pata nahi... uski rooh ko thandhak mil jati.dariiyaan to dariyaa hai... khamoshi se bah jayega...tumhari bwehad suljhi jindagi me ek uljhi daastaan bankar rah jayega.

jindagi ek mukhota hi to hai.

kya kahu.. pahle pahal laga naaraz hu tumse.... socha ki baat bhi na karu... aur kyon karu? aapni duniya me khoye tum. kabhi kisi ki parwaah nahi karte. kabhi ek kadam aage nahi badhate.. har kadam mai chalti hoon.. nazdeek aane ko aur tum fasle badhate ho. Mai janta hoon yahi soch rahi hogi tum bar aksh kahi... par halaat mazboor karte hai ki duriyon ko duri hi rahne diya jaye. kai anam se rishte hote hai jindagi me.. jinko naam nahi diyaa ja sakta. chahe tum ise mera darp kah lo . ya dar, ki koi ahankaar. par mai aisa hi hoon. bahti hawaon sa jiska kahi bhi rukna mumkin nahi... par mere saropkaar hamesha maujood honge.. saanson ke wazood ke saath ghula hai mera wazood. aur mai har sab tumse mila hua hoon kahi.. tumhari rooh me... aazma kar dekho. ye nakabposh to mere astitva ki parchhai bhar hai. ham har kadam mukhoton se ghire ek shakl bhar hai.

Monday, March 8, 2010

international womens day...

Aaj jaha pura vishwa mahila diwas mana raha hai.. wahi.. duri aur inhi mahilaon ke sataye.. pita .. pati.. maa aur bahno ne mahila aayog ke samne dharna pradarshan kiya.. apna durd banta.. jinki kanon se lekar.. police aur samaj bhi nahi sunta. ye halat to hai .. hamare kannon ke.. hamare samaj ke. masi nam ke sanghathan ne dawa kiya ki 4 saal me115695 mahilaye.. dahej kannoon aur gharelu hinsa kanoon me jail me band hui hai.. jinko nyay milne me itna arsa lag raha hai.. ki unki jati jindagi tabah ho rahi hai. mahila sasaktikaran ki baat to thik hai hai par yah kabhi bhi manviyay hito sse badhkar to nahi ho sakti. dahej kanoon(498 A) v gharelu hinsa kanoon ke durupyog v khamiyon ko dekhte huye surim court tak ne ise "bhaddi tarahse likha kanoon " kaha hai. jo is loktantra ki nyay vyawastha par ek bhadda nishaan hai.