एक खोज जारी है यहां, मन के अंदर और बाहर भी परिनिर्वाण की तालाश में, जैसे किसी बुद्ध की तरह। क्या पता किसी वैश्या के हाथों खीर की कटोरी में मिल जाए वजूद एक दिन यूं मुददतों से भटकते-2 उस तथागत या कि बुद्ध की तरह।
Wednesday, April 7, 2010
तुम्हारी याद ...
बहुत याद आई तुम्हारी ....
आज तपती दोपहर में जब घर लौटा ..
बिखरा कमरा , सल्वती बिस्तार और ..
तुम्हारी तस्वीर पर जम i एक पर अत .
देखा जब तुम्हारी दी घड़ी , कलम और किताबें
एक छोटा सा रुमाल , chandi की अठन्नी
कोने में पड़ा लंच बॉक्स , और घुझियों का खली डब्बा ।
करीने से सजी भगवान् की मूर्तियाँ और ...
सामने जले हुवे धुप के अवसेश ....
तकिये के खोल पर तुम्हारी नक्काशी ,
और मेरे गले का का ला धागा ...
देखा तो बड़ी याद आई तुम्हारी .
दिन भर की हताशा के बाद लौटा जो घर ,
रोटियों की सोंधी गंध की कौन कहे ,
एक ग्लास ठंडा पानी पूछने को जब कई ना था ,
तो तुम्हारी बड़ी याद आई माँ .
हाँ .. बड़ी शिद्दत से याद आई माँ
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