Saturday, April 10, 2010

पुराने ख़त..और तुम्हारी याद.

पिछली रात ,पलटते हुए एक पुरानी किताब ,

एक ख़त निकल आया, पुराने किसी अज़ीज़ का...

शब्द दर शब्द बयां करता मेरा वजूद....

वो पुराना ख़त निकल आया....

स्याही सुखी थी... एकदम पर इंसानी गंध कायम थी

ख़त के हासिये में मैं था और ख़त में मेरा वजूद।

जाने किस गली से अँधेरे में ये चिराग निकल आया।

लापता से इस शहर में लाख ढूँढा पर ,

कही कोई आपना मुक्कमल ठिकाना नज़र नहीं आया...

ठुकराया था जिन राहों को कभी...

लाख दी आवाजें पर ...वो राह मुड़कर नहीं आया।

छु भी ना पाया जिसको कभी लफ्जों से ..

आज वही हर्फों से सीने में उतर आया.

खामोश दरिया .....

हर जगती सुबह के साथ एक उनींदी सी,

अंगराई ले ये दरिया निकलता है ॥

सूरज की सतरंगी किरणों के संग

जैसे जीत लेगा जहाँ सारा ...

पर जाते जाते उस वीरान किनारे तक

लिपट जाता है असंवेदना की चादरों से ।

और ओढ़ लेता है तांन के लिहाफ ,

m छुपा रहा हो अपना वजूद ।

उस किसी एक शक्श से जिसके लिए

हजारों वादे किये थे कभी ...

भीगी रातों से लेकर तपती दुपहरी में ,

समय की शिलाओ के पार ।

अनाम सी सुबह में याद करता हुआ उसे ॥

ढूंढता रहा इस अजनबी शहर में ।

जो एक शख्श कही सो रहा है ,

कई जागी उनींदी रातों में करवटें बदलने के बाद ।

चलो एक सुकून तो है ,

उस जिस्म की उजास में जो चेहरा दमक रहा है ...

रात भर याद आईये सोच कर ही महक रहा है ।

मेंरा क्या ......???? मैं तो एक खामोश दरियां हूँ ॥

बह जाऊँगा आगे ऐसे ही खामोश ....

देखना तुम की कहीं कल सुबह,

ये नमी तुम्हारे सिरहाने न हो ।

आगे दिन का ताप तो है ही पुरे दिन जलने के ,

रातों रातों से जो अधजगी raaton se ,

एक लहर चुरा ली होती ।

एक जिस्म जिसका पता नहीं ...

उसकी रूह को ठंढक मिल जाती ।

दरीयाँ तो दरिया है ...ख़ामोशी से बह जायेगा ...

तुम्हारी सुलझी जिंदगी में बेवजह ,

एक उलझी दास्ताँ बनकर रह जायेगा ।

draft

Wednesday, April 7, 2010

बेगाने

आज सुबह नींद खुली और अखबार हाथ में लिए देखना शुरू भी नहीं किया था की दरवाज़े पर दस्तक...

बड़ी झल्लाहट होती है मुझे, अगर कोई सुबह सुबह अपरिचित या अखबार वाला या आन्यकोई ऐसा आ जाये जिसे देखकर मुझे ख़ुशी या अपनेपन का एहसास न हो, आ जाये तो। बहरहाल वो और कोई नहीं... मेरे लैंड लोर्ड की माँ थी। बोली बेटा सुबह सुबह आने के लिए माफी चाहती हूँ।पर बेटा आज 8tarikh है , और इस बार का किराया मेरे ही हांथों में देना॥ और हाँ हमारी बहु से इस बारे में कुछ न कहना। म हिमाचल जाते हुए उसे खुद ही बता कर जाउंगी किराया मिल गया। बहरहाल आपनी छोटी सी सैलरी का बड़ा हिस्सा मैंने किराये के रूप में आंटी को दे दिए। और चाय के लिए पूछा ..... हालाँकि मेरा मनन सुबह सुबह चाय बनाने का बिलकुल भी न था.... पर आंटी ने भी मना कर दिए फिर मेरे मन में उनकी लाचारगी के लिए दया आ गयी मैंने जिद की ..... की अब तो आपको मेरे हांथों की चाय पीनी ही होगी । फिर वो बैठ गयी ... रैक में पड़ी अल्बम उठा ली और लगी पलटने ... म भी अभी आया बोलकर नीचे दूध की थैली लेने चला गया । आया तो किचन में जाकर चाय बनानी शुरू कर दी और किचन व् कमरे से जुडी खिरकी से आंटी को देखते हुए पूछा- तो आप हिमाचल कब जा रही है? परसों । उनका संक्ष्पित जवाव था।चाय में कुचले हुए आदरक डालकर मैंने पूछा? अब दुबारा कब आना होगा? बोली न आना हो तो ही बेहतर होगा। थोड़ी सी जिन्दगी बची है वही आपनी जमीन पर सांस छुते तो अच्छा होगा। अल्बम छोड़कर अब उन्होंने कंप्यूटर पर पड़े फोटो फरमे को उठा लिया। अमूमन उसे कोई छेड़ता है तो मुझे बड़ा गुस्सा आता है पर आज नहीं आया॥ उसपर पड़ी हलकी सी गर्द सतह को हाथ से छुते हुए कहा, खुशकिस्मत है तुम्हारे मम्मी पापा। मैंने चाय का प्याला उनके हाथों में देकर कहा॥ उनसे ज्यादा मैं खुशनसीब हूँ। फिर उनके हांथों से वो अल्बम लेकर देखने लगा जब मैं पिछली बार दिवाली पर घर गया था और अपने इस कमरे की औतोमटिक तकनीक से मैं माँ पापा और मेरे भाई ने एक साथ बैठकर ये तस्वीर खीचाई थी। वाबजूद इसके की मेरी बहू से कुछ न कहना , मैंने उनसे कुछ नहीं पूछा। बस उनकी लाचारगी समझ गया। चाय अछि बनी है बोलकर उठ कड़ी हुयी और एक परचा देते हुए बोला की अब से बेटा किराया इसी खाते में जमा कर देना। अब तो इन्ही का आसरा रह गया है । पिछले पुरे एक साल में हुमदोनो के खर्चे के लिए बेटे ने महज़ ६००० रूपये भेजे। जबकि किराये से ६००० का महिना आता है। जवानी के दिन में खून पसीने सींच कर यह घर दिल्ली में बनवाया था । अब अपने ही घर में बेगाने है। इतने से पैसों में क्या खाए और क्या बचाएं? वहां हिमाचल में कोई गुरुद्वारा भी नहीं दिल्ली की तरह .........की एक वक़्त का खाना ही वहां से मिल जाये। कहकर वो तेज़ीसे नीचे की तरफ चली गयी.और मेरे लिए एक शुन्य छोड़गयी। और मैं उनके ताठाकथित सोस ला इत बेटे बहु के बारे में सोचने लगा। जहाँ वाकई एक शुन्य था।

आज इस गली में थोड़ी उजास है...

खुश हूँ की कोई मेरे पास है ॥

हर घडी ग़म की धुप नहीं यहाँ ,

दूर कही तिरती बादलों की आस है।

गुमनामी का अँधेरा तो फैला है यहाँ

पर सिद्दत से अपने वजूद की तलाश है ॥

नामालूम ये वजूद तुम्हारे दो पल के सांगत में है,

या है ये किसी चाहरदीवारी के अन्दर बंद,

कराहता, कुलबुलाता॥ छटपटाता ....

किश्तों में जोड़ जोड़ कर मुस्कुराहटें अपनी ,

देखो न आज मैं कितना खुश हूँ।

आसमा का चाँद भी थोडा बड़ा है आज ,

हवाएं भी तो नहीं सरसराई पहले यु कभी

और देखो ये पीपल भी तो ज्यादा हरा है आज ।

क्या ये भी शरीक है मेरी खुशियों में,

या इनकी अपनी वज़हें है खुश होने की।

पर क्या है की कोई इंसान खुश नहीं आज ,

एक सांप तक खुशी से लहराकर चला गया,

पर कोई इंसान हुआ नहीं शरीक इस ख़ुशी में,

अब समझा अज्ञेय ने क्यों कहा की ,

सांप। ....

तुम सभ्य तो हुए नहीं ,

नगर में बसना भी तुम्हे नहीं आया ,

एक बात पूंछू?????

(उत्तर दोगे??)

तब कैसे सीखा डसना और विष कहाँ से पाया?

तुम्हारी याद ...

बहुत याद आई तुम्हारी .... आज तपती दोपहर में जब घर लौटा .. बिखरा कमरा , सल्वती बिस्तार और .. तुम्हारी तस्वीर पर जम i एक पर अत . देखा जब तुम्हारी दी घड़ी , कलम और किताबें एक छोटा सा रुमाल , chandi की अठन्नी कोने में पड़ा लंच बॉक्स , और घुझियों का खली डब्बा । करीने से सजी भगवान् की मूर्तियाँ और ... सामने जले हुवे धुप के अवसेश .... तकिये के खोल पर तुम्हारी नक्काशी , और मेरे गले का का ला धागा ... देखा तो बड़ी याद आई तुम्हारी . दिन भर की हताशा के बाद लौटा जो घर , रोटियों की सोंधी गंध की कौन कहे , एक ग्लास ठंडा पानी पूछने को जब कई ना था , तो तुम्हारी बड़ी याद आई माँ . हाँ .. बड़ी शिद्दत से याद आई माँ

Tuesday, April 6, 2010

khamosh hoon mai...

खामोश हूँ मैं आजकल
इसलिए नहीं की शब्द नहीं है मेरे पास
इसलिए की मैं चुप रहना चाहता हूँ।
महसूस करना चाहता हूँ उस आवाज़ को ,
जो शायद मेरी ख़ामोशी में सुने जाये।
एक आवाज़ तो हो तुम किसी की वजूद में ,
जैसे मंदिर की घंटी या शंख की अनुगूँज
या किसी कलि के खिलने की सरसराहट
मुझे पता है की बोलना चाहिए मुझे,
क्योकि न जाने किस घडी हो जाऊ बेवावाज़ ,
और एक निरंतर ख़ामोशी चा जाये मेरे वजूद पर।
अपनी ख़ामोशी पर मैंने तुम्हारी मुस्कराहट देखि ।
एक जीत की ख़ुशी और स्वयं का अभिमान।
हाशिये के इस पार मैं हूँ यहाँ पर,
और दूर क्षितिज पर तिरती तुम्हारी मुस्कान,
शायद इसलिए मैं आज खामोश हूँ,
दूर तुम्हारी नज़रों औरun chandi की दीवारों के पार,
आज मैं बेहद खामोश हूँ.