आज इस गली में थोड़ी उजास है...
खुश हूँ की कोई मेरे पास है ॥
हर घडी ग़म की धुप नहीं यहाँ ,
दूर कही तिरती बादलों की आस है।
गुमनामी का अँधेरा तो फैला है यहाँ
पर सिद्दत से अपने वजूद की तलाश है ॥
नामालूम ये वजूद तुम्हारे दो पल के सांगत में है,
या है ये किसी चाहरदीवारी के अन्दर बंद,
कराहता, कुलबुलाता॥ छटपटाता ....
किश्तों में जोड़ जोड़ कर मुस्कुराहटें अपनी ,
देखो न आज मैं कितना खुश हूँ।
आसमा का चाँद भी थोडा बड़ा है आज ,
हवाएं भी तो नहीं सरसराई पहले यु कभी
और देखो ये पीपल भी तो ज्यादा हरा है आज ।
क्या ये भी शरीक है मेरी खुशियों में,
या इनकी अपनी वज़हें है खुश होने की।
पर क्या है की कोई इंसान खुश नहीं आज ,
एक सांप तक खुशी से लहराकर चला गया,
पर कोई इंसान हुआ नहीं शरीक इस ख़ुशी में,
अब समझा अज्ञेय ने क्यों कहा की ,
सांप। ....
तुम सभ्य तो हुए नहीं ,
नगर में बसना भी तुम्हे नहीं आया ,
एक बात पूंछू?????
(उत्तर दोगे??)
तब कैसे सीखा डसना और विष कहाँ से पाया?
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