Wednesday, April 7, 2010

आज इस गली में थोड़ी उजास है...

खुश हूँ की कोई मेरे पास है ॥

हर घडी ग़म की धुप नहीं यहाँ ,

दूर कही तिरती बादलों की आस है।

गुमनामी का अँधेरा तो फैला है यहाँ

पर सिद्दत से अपने वजूद की तलाश है ॥

नामालूम ये वजूद तुम्हारे दो पल के सांगत में है,

या है ये किसी चाहरदीवारी के अन्दर बंद,

कराहता, कुलबुलाता॥ छटपटाता ....

किश्तों में जोड़ जोड़ कर मुस्कुराहटें अपनी ,

देखो न आज मैं कितना खुश हूँ।

आसमा का चाँद भी थोडा बड़ा है आज ,

हवाएं भी तो नहीं सरसराई पहले यु कभी

और देखो ये पीपल भी तो ज्यादा हरा है आज ।

क्या ये भी शरीक है मेरी खुशियों में,

या इनकी अपनी वज़हें है खुश होने की।

पर क्या है की कोई इंसान खुश नहीं आज ,

एक सांप तक खुशी से लहराकर चला गया,

पर कोई इंसान हुआ नहीं शरीक इस ख़ुशी में,

अब समझा अज्ञेय ने क्यों कहा की ,

सांप। ....

तुम सभ्य तो हुए नहीं ,

नगर में बसना भी तुम्हे नहीं आया ,

एक बात पूंछू?????

(उत्तर दोगे??)

तब कैसे सीखा डसना और विष कहाँ से पाया?

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