अंगराई ले ये दरिया निकलता है ॥
सूरज की सतरंगी किरणों के संग
जैसे जीत लेगा जहाँ सारा ...
पर जाते जाते उस वीरान किनारे तक
लिपट जाता है असंवेदना की चादरों से ।
और ओढ़ लेता है तांन के लिहाफ ,
m छुपा रहा हो अपना वजूद ।
उस किसी एक शक्श से जिसके लिए
हजारों वादे किये थे कभी ...
भीगी रातों से लेकर तपती दुपहरी में ,
समय की शिलाओ के पार ।
अनाम सी सुबह में याद करता हुआ उसे ॥
ढूंढता रहा इस अजनबी शहर में ।
जो एक शख्श कही सो रहा है ,
कई जागी उनींदी रातों में करवटें बदलने के बाद ।
चलो एक सुकून तो है ,
उस जिस्म की उजास में जो चेहरा दमक रहा है ...
रात भर याद आईये सोच कर ही महक रहा है ।
मेंरा क्या ......???? मैं तो एक खामोश दरियां हूँ ॥
बह जाऊँगा आगे ऐसे ही खामोश ....
देखना तुम की कहीं कल सुबह,
ये नमी तुम्हारे सिरहाने न हो ।
आगे दिन का ताप तो है ही पुरे दिन जलने के ,
रातों रातों से जो अधजगी raaton se ,
एक लहर चुरा ली होती ।
एक जिस्म जिसका पता नहीं ...
उसकी रूह को ठंढक मिल जाती ।
दरीयाँ तो दरिया है ...ख़ामोशी से बह जायेगा ...
तुम्हारी सुलझी जिंदगी में बेवजह ,
एक उलझी दास्ताँ बनकर रह जायेगा ।
draft
हर शब्द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है
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