Saturday, April 10, 2010

खामोश दरिया .....

हर जगती सुबह के साथ एक उनींदी सी,

अंगराई ले ये दरिया निकलता है ॥

सूरज की सतरंगी किरणों के संग

जैसे जीत लेगा जहाँ सारा ...

पर जाते जाते उस वीरान किनारे तक

लिपट जाता है असंवेदना की चादरों से ।

और ओढ़ लेता है तांन के लिहाफ ,

m छुपा रहा हो अपना वजूद ।

उस किसी एक शक्श से जिसके लिए

हजारों वादे किये थे कभी ...

भीगी रातों से लेकर तपती दुपहरी में ,

समय की शिलाओ के पार ।

अनाम सी सुबह में याद करता हुआ उसे ॥

ढूंढता रहा इस अजनबी शहर में ।

जो एक शख्श कही सो रहा है ,

कई जागी उनींदी रातों में करवटें बदलने के बाद ।

चलो एक सुकून तो है ,

उस जिस्म की उजास में जो चेहरा दमक रहा है ...

रात भर याद आईये सोच कर ही महक रहा है ।

मेंरा क्या ......???? मैं तो एक खामोश दरियां हूँ ॥

बह जाऊँगा आगे ऐसे ही खामोश ....

देखना तुम की कहीं कल सुबह,

ये नमी तुम्हारे सिरहाने न हो ।

आगे दिन का ताप तो है ही पुरे दिन जलने के ,

रातों रातों से जो अधजगी raaton se ,

एक लहर चुरा ली होती ।

एक जिस्म जिसका पता नहीं ...

उसकी रूह को ठंढक मिल जाती ।

दरीयाँ तो दरिया है ...ख़ामोशी से बह जायेगा ...

तुम्हारी सुलझी जिंदगी में बेवजह ,

एक उलझी दास्ताँ बनकर रह जायेगा ।

draft

2 comments:

  1. हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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  2. ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है

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