खामोश हूँ मैं आजकल
इसलिए नहीं की शब्द नहीं है मेरे पास
इसलिए की मैं चुप रहना चाहता हूँ।
महसूस करना चाहता हूँ उस आवाज़ को ,
जो शायद मेरी ख़ामोशी में सुने जाये।
एक आवाज़ तो हो तुम किसी की वजूद में ,
जैसे मंदिर की घंटी या शंख की अनुगूँज
या किसी कलि के खिलने की सरसराहट
मुझे पता है की बोलना चाहिए मुझे,
क्योकि न जाने किस घडी हो जाऊ बेवावाज़ ,
और एक निरंतर ख़ामोशी चा जाये मेरे वजूद पर।
अपनी ख़ामोशी पर मैंने तुम्हारी मुस्कराहट देखि ।
एक जीत की ख़ुशी और स्वयं का अभिमान।
हाशिये के इस पार मैं हूँ यहाँ पर,
और दूर क्षितिज पर तिरती तुम्हारी मुस्कान,
शायद इसलिए मैं आज खामोश हूँ,
दूर तुम्हारी नज़रों औरun chandi की दीवारों के पार,
आज मैं बेहद खामोश हूँ.
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