Monday, April 26, 2010

..२० मिनट का सफ़र जो पूरा नहीं होता......

खिडकियों से आती ताज़ी हवा... कबूतर की गुटुर गूं ... इश्वर  सत्य  है.. सत्य ही शिव है ... जागो.....
उठ कर देखो जीवन ज्योत उजागर है....राधा मोहन शरणम.... की मोबाइल रिंग टोने के साथ कुछ इस तरह होती है मेरी सुबह ...सुबह के सात बजे..  जी चाहता है और सोने को.. चाहकर भी लता के इस भजन को बंद नहीं कर पाता...  सामने बालकनी के निचे बनी  मुंडेर से कबूतर का एक जोड़ा गुनगुनाता दीखता है... मै चाहकर भी जगा नहीं रह पता.. माँ के हांथों का भीगा स्पर्श याद आता है.. और मै नींद की दुनिया में अगले आधे घंटे के लिए चला जाता हूँ... और चाहकर भी उसके बाद सो नहीं पता.. आदत जो है बचपन से... बचपन में जे एन वि  के हॉस्टल में पीटी क्लास्सेस के लिए.. छुट्टियों  में माँ के मंत्रौचारण से.. हमेशा सुबह सुबह जगता रहा हूँ.. घर पर होता तो माँ पूजा के बाद अपने शीतल हांथों से बालों में उंगलियाँ फ़िराती तो मै करवट बादल कर सोने का उपक्रम करता... 
आज माँ का स्पर्श अतीत जैसा हो गया है.... मै यहाँ दिल्ली में  .. माँ वहां पुर्नेया में.. कभी कभार घर भी जाना हुआ तो ये सुख तो मिल नहीं पाता..  माँ खोयी खोयी सी रहने लगी है.. आँखों के साथ यादाश्त भी थोड़ी कमजोर हो गयी है.. .. हाँ रविवार के रविवार सुबह सुबह फ़ोन करना नहीं भूलती..
और कभी फ़ोन न लगे तो और माओं की तरह परेशान भी हो जाती है .. जैसा इस सुबह रविवार को हुआ.. मै अल इंडिया रेडियो के न्यूज़ रीडर के लिए एक्साम दे रहा  था और फ़ोन बंद था .. करीबन दो बजे तक...
 और फ़ोन आउन करते ही जब माँ का फ़ोन बजा तो... तो लगा  माँ कितनी परेशान रही होगी.. अब तक शर्मिंदा हूँ.. ऐसी गलती के लिए जो मैंने किया ही नहीं..
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सुबह के १०.३० बजे मै लक्ष्मीनगर मेट्रो स्टेशन पर होता हूँ...  पाता नहीं मेट्रो से ये २० मिनट इतने भाड़ी क्यों पड़ते है.. मेट्रो भी ५-६ मिनट बाद ही आती है... पहले पहल तो मोबाइल से fm सुना करता था.. पर जी उचाट हो गया.. अब फिर समाचार पत्र के एडिटोरिअल पढने लगा ... फिर भीस्म सहनी की कहानियाँ... और आजकल... मोहन लाल भास्कर की.."मैं पकिस्तान में भारत का जासूस था..." बेहद रोचक होने के बाद भी  मै यमुना बैंक के बाद किताब के बीच उंगलियाँ रखकर यमुना को देखने लगता हूँ... (याद है पहली बार दिल्ली आते हुए यमुना देखने की कितनी जिज्ञासा थी, पर इससे आती दुर्गन्ध ने मुझे बेहद निराश किया था..) ..यमुना.. मेट्रो के शीशे से पार यमुना को देखता रहता हूँ.. सोचता हूँ जितना हम इंसान बचे रह गए है .. यमुना भी उतनी ही नदी बनी रह गयी है..
 न हमने खुद को इंसान बने रहने दिया  .. और न ही उसे नदी...  मोह होता है यमुना को देखकर.. कृष्ण के रास लीलाओं की..  बाल लीलाओं  की बरबस याद आती है.. ..और पलक झपकते ही यमुना आँखों से तिरती हुयी ओझल हो जाती है.. फिर पेड़ों की झुरमुट से "इन्द्रप्रस्थ " आता है...  पांडवों की नगरी  पर कहीं से कोई ऐतिहासिक झलक नहीं और न ही इतिहास सोचने का मौका... अलबत्ता WHO का बड़ा सा ऑफिस नज़र आता है.. चमचमाता हुआ.. और इस पर गर्व करने से पहले ही उसके पीछे बड़ी सी गन्दी नाली और उसके किनारे बसे सैकड़ों झुग्गियां नज़र आती है... सिस्टम में होल यहीं पर दीखता है... जिसे राष्ट्रमंडल  खेलों के पहले दिल्ली सर्कार बांस के बड़े बड़े झुरमुट लगाकर ... करोड़ों रुपये लगाकर ढँक देना चाहती है.. ताकि दिल्ली सुन्दर दिखे .
मन कड़वा हो जाता है ..... 
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"प्रगति मैदान"
प्रगति मैदान के इर्द-गिर्द लगे गुलमोहर के पदों पर लादे लाल -लाल गुलमोहर इस बेरंगी सी  जिन्दगी में रंग भरने की भरसक कोशिश करते हैं... जैसे आसमां से दादी नानी की कहानियों वाली लाल परी धरती पर उतर आयी हो.. 
और अब सारे दिन की थकन के बाद उन कहानियों को सोचते हुए.. वक़्त इस मशीनी कंप्यूटर के  आगे ठहर सा गया है... जी उन कहानियों से बहार आकर कुछ लिखने को कहाँ देना चाहता है...
ये अनंत सफ़र तो यु ही जरी रहेगा...
पाता नहीं उन अपनों को याद करने का वक़्त मिले न मिले.......
हाँ ... पर वो अ अस्थिर ..गतिशील २० मिनट नहीं कट ते ....


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