Wednesday, April 7, 2010

बेगाने

आज सुबह नींद खुली और अखबार हाथ में लिए देखना शुरू भी नहीं किया था की दरवाज़े पर दस्तक...

बड़ी झल्लाहट होती है मुझे, अगर कोई सुबह सुबह अपरिचित या अखबार वाला या आन्यकोई ऐसा आ जाये जिसे देखकर मुझे ख़ुशी या अपनेपन का एहसास न हो, आ जाये तो। बहरहाल वो और कोई नहीं... मेरे लैंड लोर्ड की माँ थी। बोली बेटा सुबह सुबह आने के लिए माफी चाहती हूँ।पर बेटा आज 8tarikh है , और इस बार का किराया मेरे ही हांथों में देना॥ और हाँ हमारी बहु से इस बारे में कुछ न कहना। म हिमाचल जाते हुए उसे खुद ही बता कर जाउंगी किराया मिल गया। बहरहाल आपनी छोटी सी सैलरी का बड़ा हिस्सा मैंने किराये के रूप में आंटी को दे दिए। और चाय के लिए पूछा ..... हालाँकि मेरा मनन सुबह सुबह चाय बनाने का बिलकुल भी न था.... पर आंटी ने भी मना कर दिए फिर मेरे मन में उनकी लाचारगी के लिए दया आ गयी मैंने जिद की ..... की अब तो आपको मेरे हांथों की चाय पीनी ही होगी । फिर वो बैठ गयी ... रैक में पड़ी अल्बम उठा ली और लगी पलटने ... म भी अभी आया बोलकर नीचे दूध की थैली लेने चला गया । आया तो किचन में जाकर चाय बनानी शुरू कर दी और किचन व् कमरे से जुडी खिरकी से आंटी को देखते हुए पूछा- तो आप हिमाचल कब जा रही है? परसों । उनका संक्ष्पित जवाव था।चाय में कुचले हुए आदरक डालकर मैंने पूछा? अब दुबारा कब आना होगा? बोली न आना हो तो ही बेहतर होगा। थोड़ी सी जिन्दगी बची है वही आपनी जमीन पर सांस छुते तो अच्छा होगा। अल्बम छोड़कर अब उन्होंने कंप्यूटर पर पड़े फोटो फरमे को उठा लिया। अमूमन उसे कोई छेड़ता है तो मुझे बड़ा गुस्सा आता है पर आज नहीं आया॥ उसपर पड़ी हलकी सी गर्द सतह को हाथ से छुते हुए कहा, खुशकिस्मत है तुम्हारे मम्मी पापा। मैंने चाय का प्याला उनके हाथों में देकर कहा॥ उनसे ज्यादा मैं खुशनसीब हूँ। फिर उनके हांथों से वो अल्बम लेकर देखने लगा जब मैं पिछली बार दिवाली पर घर गया था और अपने इस कमरे की औतोमटिक तकनीक से मैं माँ पापा और मेरे भाई ने एक साथ बैठकर ये तस्वीर खीचाई थी। वाबजूद इसके की मेरी बहू से कुछ न कहना , मैंने उनसे कुछ नहीं पूछा। बस उनकी लाचारगी समझ गया। चाय अछि बनी है बोलकर उठ कड़ी हुयी और एक परचा देते हुए बोला की अब से बेटा किराया इसी खाते में जमा कर देना। अब तो इन्ही का आसरा रह गया है । पिछले पुरे एक साल में हुमदोनो के खर्चे के लिए बेटे ने महज़ ६००० रूपये भेजे। जबकि किराये से ६००० का महिना आता है। जवानी के दिन में खून पसीने सींच कर यह घर दिल्ली में बनवाया था । अब अपने ही घर में बेगाने है। इतने से पैसों में क्या खाए और क्या बचाएं? वहां हिमाचल में कोई गुरुद्वारा भी नहीं दिल्ली की तरह .........की एक वक़्त का खाना ही वहां से मिल जाये। कहकर वो तेज़ीसे नीचे की तरफ चली गयी.और मेरे लिए एक शुन्य छोड़गयी। और मैं उनके ताठाकथित सोस ला इत बेटे बहु के बारे में सोचने लगा। जहाँ वाकई एक शुन्य था।

6 comments:

  1. बड़ी दर्द भरी दास्ताँ है, ऐसा किसी के साथ नहीं होना चाहिए

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  2. अच्छी प्रस्तुति। बधाई। ब्लॉगजगत में स्वागत।

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  3. Dua karti aisa kisike saath na ho...lekin hote hue nazar aata hai..

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  4. सच में दुनिया में कितना दर्द है....क्यों पता नहीं ..एक शून्य है जिसकी आवाज भी सन्नाटे की सीटी है

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  5. हिंदी में आपका लेखन सराहनीय है, इसी तरह तबियत से लिखते रहे... धन्यवाद.

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  6. The contents are good but due to technical handicap,the mistakes in Hindi are there. Is there any method to edit and rectify the text..... But my best wishes for good and creatiive writing.

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thanks 4 viewing.