Saturday, April 17, 2010

रूह में पनाह है तेरा .


आज हवा थोड़ी उदास सी बह रही है,
मौसम भी कितना बदरंग और गरम है.
दूर आसमां में बादल भी नहीं जो....
ये जिस्म कोई ठंडक महसूस करे .
हूक उठी दूर कही किसी दिल में,
जैसे क्रोंच पक्छी के जोड़े में से ,
एक हो गया हो शिकारी की क्रूरता का शिकार,
प्रेम व् प्रणय की पीड़ा से कराहता
निस्संग रह गया अकेला प्राणी ,
क्या कहेगा व्यथा अपनी या की देगा श्राप ,
और दूर  बैठा ऋषि वियोग देखकर ,
मानो  फिर उठा लेगा
कमल की पंखुड़ी और लिख देगा
अपने नाखून से अपने अन्दर के विरह को,
 और अवतरित हो जाएगी सृष्टीकी,
  प्रथम रचना पहला  काव्य.
और फिर दूर हो जाएगी इन हवाओं की उदासी....
और मेरे आगोश में होगी....
तुम्हारे सीने की ठंडक ....
अहिस्ता आहिस्ता रूह में पनाह लेती....

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