Monday, January 3, 2011

तो ले चलोगे न उस पार.....

उसने धीरे से कहा...
  तुम्हारा मुस्कुराना अच्छा लगता है. कितनी रहस्यमयी मुस्कान है तुम्हारी...
 हसना तो जैसे तुमने सिखा ही नहीं..
  कितना हसीं होगा वो पल जब तुम ठाहके लगा कर उन्मुक्त हंसी हसोगे...
   जाने भी दो...
 क्या रखा है इस हंसी में..
 तुम्हारी खिलखिलाहटों में तो मै ही हँसता रहता हूँ.
रात के सन्नाटे में तुमने ही तो मुस्कुराने की वजह दी है...
 सोचता हूँ की प्यार कभी इतना निश्छल भी हो सकता है...
जगता तब भी था जगता अब भी हूँ.. पर कितना फर्क होता है न नदी के दो किनारों की तरह ..
 तुम्हारे साथ जिन्दगी का एक दूसरा रू०प देखा..
 वीरानों में भी बसंत की खूसबू महसूस की....
  अब तो मै तुम्हारे देह की खुसबू भी पहचान लू..
   क्या वाकई इंसानी गंध को पहचानना इतना आसन है...
 कहते है धरी पर इंसान का पहला वास्ता इंसानी गंध से होता है..
 बच्चा पैदा होते ही शक्ल नहीं माँ की दैहिक गंध पहचानता है... फिर दैहिक उस्मा...
क्या उमीदों की उस दुनिया तक पंहुचा जा सकता है...
 मुझे तुम्हारे साथ उम्मीदों के उस जहाँ तक जाना है...
  तो ले चलोगे न उस पार.....

No comments:

Post a Comment

thanks 4 viewing.